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छत्तीसगढ़ी म पढ़व- पोरा, चुकिया अउ बइला

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मुड़ मं बोहे झउंहा ला तब ओ दीदी मेर जाके उतारथे अउ कहिथे- नइ सुनत रेहेंव बहिनी, थोकन उचकहा सुनथौं. तीजा-पोरा लकठियागे हे. बहिनी-बेटी अउ दाई महतारी मन अपन-अपन मइके जाथे. साल मं एके घौं तो मिलथे मइके जाय बर. जुन्ना सबो संगवारी मन मिलथे, सुख-दुख बांटथे, अपन लइका-पिचका मन के हाल-हियाव करथे. नान-नान लइका मन बर डोकरी दाई मन पोरा, चुकिया जाता अउ बइला बिसाथे (खरीदथे). पोरा के दिन जेकर जइसे सुविधा बन जथे ठेठरी, खुर्मी, चंवसेला, अइरसा बनाथे. पोरा, चुकिया, जाता, बइला मं ओ पकवान ल चढ़ाके पूजा-पाठ करथे अउ अपन कुल देवता ला मनावत कहिथे- सब बेटी-बहिनी, दाई-महतारी अउ ओकर मन के लोग लइका ला बने-बने रखबे, बारा महीना मं फेर अइसने मिलबो, भेंट करबो अउ तोला चोला चढ़ाबो.

छत्तीसगढ़ मं ये संस्कृति कब ले चलत आवत हे कोनो नइ जानय, न बता सकय. पुरखा मन चला दे हे चलागन तौंन आज ले चलै आवत हे. दुरिहा-दुरिहा गे बेटी-बहिनी सब जुरियाथे ये परब मं. जौंने मन नइ आ सकय तौंन मन अपन दाई-ददा, भाई-मन के सुरता करके रोवत रहिथे. कतेक दिन के रद्दा जोहत रहिथे. तीजा ले गे बर मोर ददा, नइते भइया आही, आवत होही. मइके के मया जबर होथे, छूटे ले नइ छूटय, मरे नइ मरय. तभे तो कहिथे- मइके के कुकुर, नोहर कभू कोनो कुकुर दिख जथे तब कहिथे- मोर गांव मं अइसने एक ठन कलमुंहा कुकुर रिहिस हे बहिनी. कोनो पतियावय के झन पतियावय फेर ओ कुकुर ला देखते साठ ओ बेटी-बहिनी मन मइके के सुरता करत रो डरथे.

ननंद पूछथे- काबर रोवत हस भउजी, तब ओहर ओला कहिथे- का बताऔं रे सबितरी, मोला मोर मइके के सुरता आगे, दाई-ददा, भाई-बहिनी, घर-दुआर, रुख-राई के अउ मोर गली के कुकुर के सुरता आगे. कोन जनी ओ कुकुर जीयत होही धन नहिते?

ननद पूछथे- अतेक मया करथस ओ मइके ला, उहां के मनखे, पशु-पक्षी मन ला? तब भउजी बताथे- अभी तैं ये मरम ला नइ जानस रे सबितरी, जब तहूं बिहाव करके सुसराल चले जाबे न, तब मोर सुरता करत कहिबे- भउजी केहे रिहिसे हे तौंन सही बात हे. कतेक मया होथे मइके के.

सही बात ये, मया कतेक गुरतुर होथे, चाहे मइके के होय, चाहे जांवर जोड़ी के, कुछु के भुलाये नइ जाय सकय. ननद-भउजाई के मया घला कोनो कम नइ होय? इही सब बात के सुरता तब आथे जब सबो बेटी, बहिनी, तीजा-पोरा पइत मइके मं सकलाथे. धन हे ओ पुरखा मन के जोखा जौंन ये बात के सुरता रखे खातिर परब अउ तिहार बनाय हे. इही तो छत्तीसगढ़ के संस्कार अउ संस्कृति हे.

ओ कुम्हारिन करा ओ दिन तब मुहल्ला भरके माई लोगिन मन खरीदीन पोरा, चुकिया, जाता अउ बइला. एको कन कांही नइ बाचिस. पइसा ला धरिस तहां ले जब रेंगत रिहिस तब गली के कुकुर ओला भूके ले धर लिस. ओहर ओला बखानत कहिथे- भाग रे रोगहा कलमुंहा कुकुर नइतो, मही तोला दिखेंव भुके बर. दूरिहा चल दिस तभो ले ओहर हांव… हांव… करे ले नइ छोड़े रिहिस हे.

(परमानंद वर्मा छत्तीसगढ़ी के जानकार हैं, आलेख में लिखे विचार उनके निजी हैं.)

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