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छत्तीसगढ़ी म पढ़व- फेर आगे दिन बादर खेती-किसानी के

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गरमी के मारे जीव बियाकुल. अब जीना हे तब कइसनो करके जीव ला तो बचाय ले परथे. लू मं कतको लेसागे चर-चर ले कीरा-मकोरा बरोबर. कोन देखइया, कोन सुनइया. अइसन पदनीपाद पदोय हे एसो के गरमी, जमराज बनके धरती म उतरगे रिहिसे. जतका ला रपोटत, सइथत अउ बटोरत बनिस कोरोना बरोबर तइसन उहू ह करिस.

भला होवय इंद्र देवता के, जउन लेसावत मनखे ला पानी के बरसा करवाके ओकर मन के परान ला बचाइस. अब जब ओहर बरसा शुरू होइस तब किसान मन के करम जाग गे. बारिश होथे तहां ले खेती-किसानी के दिन आ जथे. किसान मन खेती-बारी कोती झांके-ताके ले शुरू करथे. नांगर, बइला, खातू-माटी सब के हियाव करना शुरू करथे. कांटा-खूंटी बिनना शुरू कर देथे. अइसन नइ करही, नइ चतवारही तब नांगर जोते के बेरा पांव मं कांटा-खूंटी गड़े के भारी डर रहिथे. बहुत जियानथे, कहूं पांव मं कांटा गोभा जथे तब. खेती के रकम, ओकर सुख-दुख ला किसाने हर जानही. कउन किसम ले अन्न उपजारथे तउन ला. महतारी मन जइसे दरत उही मन सरेख (समझ) सकथे. सही केहे हे सियान मन जउन हाना बनाय हे ”बांझ का जानय प्रसव के पीरा”. किसान मन के छोड़े कोनो दूसर नइ जान सकय ये मरम ला. चटखार के गोठियइया तो बहुत हे. ओकर मन के दरद न जानय कोय?

कोठी के धान ला उलद के खेती मं अइसे छींचत हे, जइसे ओ बीज के बइरी होगे हे. कोनो अपन पूंजी, धान ला अइसने उदाबादी असन फेंकही? नइ फेंकय, अतेक निरमोही नइहे किसान मन, कतेक बड़े जुआरी हे किसान मन जउन कोठी के धान ला खेत मं अइसे दांव मं लगा देथे जइसे जुआ खेलइया मन रुपिया ल फड़ मं फेंक देथे. जना-मना खेती-मेती मं रद्दा चलत पागे हे. नहीं- एकर पीछे ओकर मन के भावना रहिथे के तियाग करबो तब दस रुपिया के हजार मिलही. वइसने कस किसान मन घला भारी तियाग करथे. धान बोथे, निंदई-कोड़ई करथे, कोपर चलाथे, बियासी करथे. नानचिन लइका मन सही धान के पौधा जब बाढ़त जाथे तब दिन-रात हियाव करत रहिथे. टॉनिक बरोबर खातू-माटी अउ कीटनाशक दवा मन के बेरा-बखत मं छिड़काव करत रहिथे.

धान तो पानी के बोजा हे, बिना पानी बिगन तो ओकर कोनो बुता बनय नहीं. बोआई करे के पहिली पानी, बियासी करना हे तब पानी, बियासी के बाद खेत सुखावय झन, तभो पानी अउ जब पौधा पोटरियाय ले धर लेथे तभो पानी. बिन पानी सब सून हे खेती-किसानी. कुंआर के महीना मं कभू-कभू एके पानी बर धपोर देथे. किसान मन हा आकास कोती टकटकी लगा के संझा-बिहनिया देखत रहिथे. घटा उठथे, करिया-सफेद बादर एती ले ओती आवत-जात रहिथे. कभू-कभू अइसे लगथे के अब-तब गिर जाही का, फेर कहां बरसना हे. टूरी मन बिजरा के जइसे टूरा मन ला गच्चा दे देथे, ले चल मैं आवत हौं कहिके तइसने कस वो करिया बादर किसान मन ला घला ललचा देथे फेर गिरय नहीं, अउ इही एक पानी के सेती ओकर सारी कमई निसफल हो जथे. जेकर मन करा बोर के साधन हे, न अपासी के सुविधा हे, तउन मन तो मजा मार देथे, दुल्हा डउका मन असन. अउ जेकर करा अइसन कोनो साधन नइहे तउन लुलुवाहत वइसने रहिथे जइसे किसन कन्हैया के माखन रोटी ला कउंआ छीन के ले जथे. कउंआ मजा मारत रहिथे अउ कन्हैया रोवत रहि जथे. किसान मन के रोये के भाग लिखे हे.

खेती-किसानी मं आफत-आफत होथे. सियान मन हाना गढ़े हे- ”ठाढ़े खेती, गाभिन गाय तब जानव जब मुंह मं जाय” ओहर सिरतोन तो आय. फसल के रक्छा करे खातिर मवेशी मन के बारी सकला-जतन करे ले परथे, रोका-छेका नइ करबे तब फसल बचबे नइ करय. आजकल हरहा गरुआ अइसे ढिल्ला सांड सही किंजरत रहिथे, आवारा मन सही के बाते झन पूछ. कुछ किसान मन घला लापरवाही करथे. अपन काम सर जथे तहां ले मवेशी मन ला ढिल्ला चरे बर दूसर के खेत कोती छोड़ देथे. अइसन नइ करना चाही, फेर हेकराहा मन संग कोन मुंह लगही. इही-पाके गरवा मन ले फसल ला बचाय खातिर ”रोका-छेका” के बेवस्था करे जाथे. गांव मं मुनादी कराके मवेशी वाले किसान मन ला इत्तला कर दे जाथे. अपन-अपन मवेशी ला सकला-जतन कर के रखिहौ, ढिल्ला झन छोडि़हौ. अउ जउन अइसन करही तेकर बर दंड के घलो बेवस्था करे जाथे. छत्तीसगढ़ सरकार घला इही बात ला दियान मं रखके मवेशी मन के ”रोका-छेका” करे के सलाह दे हे.

(परमानंद वर्मा छत्तीसगढ़ी के जानकार हैं, आलेख में लिखे विचार उनके निजी हैं.)

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